चीन में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न केवल बहुपक्षीय मंच पर भारत की उपस्थिति को सशक्त रूप में दर्ज कराया, बल्कि कई विश्व नेताओं से द्विपक्षीय मुलाक़ात कर यह स्पष्ट कर दिया कि भारत आज वैश्विक राजनीति का अपरिहार्य केंद्र बन चुका है। इसके विपरीत, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की उपेक्षा ने दक्षिण एशियाई राजनीति में एक स्पष्ट संकेत छोड़ा। सबसे अहम तथ्य यह रहा कि मोदी और शरीफ के बीच न तो कोई मुलाक़ात हुई, न ही औपचारिक अभिवादन। यह केवल भारत की ओर से ही नहीं, बल्कि चीन की मेज़बानी में भी स्पष्ट दिखा कि पाकिस्तान को प्राथमिकता नहीं मिल रही थी। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने मोदी और पुतिन के साथ तो गर्मजोशी से हाथ मिलाया, तस्वीरें खिंचवाईं और लंबी बातचीत की, लेकिन शरीफ को वह महत्व नहीं दिया जिसकी पाकिस्तान अपेक्षा करता रहा है।
यह घटनाक्रम कई स्तरों पर संदेश देता है। पहला, बीजिंग के लिए भारत का महत्व आर्थिक और रणनीतिक दृष्टि से कहीं अधिक है। दूसरा, यह भारत की “रणनीतिक स्वायत्तता” और वैश्विक स्वीकार्यता का परिणाम है कि अब महाशक्तियां नई दिल्ली को दक्षिण एशिया का निर्णायक चेहरा मानती हैं। तीसरा, पाकिस्तान की लगातार अस्थिर राजनीति और आर्थिक बदहाली ने उसकी अंतरराष्ट्रीय साख को कमजोर किया है। तिआनजिन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान का प्रभाव सिकुड़ रहा है। जहां भारत को संवाद, निवेश और सहयोग का केंद्र माना जा रहा है, वहीं पाकिस्तान धीरे-धीरे हाशिये की ओर धकेला जा रहा है। इसलिए यह कहना उचित होगा कि तिआनजिन शिखर सम्मेलन केवल बहुपक्षीय विमर्श का मंच नहीं था, बल्कि इसने दक्षिण एशिया की नई कूटनीतिक वास्तविकता को भी उजागर किया है। यह एक ऐसा परिदृश्य है जिसमें भारत उभरता केंद्र है और पाकिस्तान हाशिये पर खड़ा, उपेक्षा का शिकार देश है।
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जहां तक प्रधानमंत्री मोदी की द्विपक्षीय मुलाकातों की बात है तो आपको बता दें कि नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. ओली से भेंट के दौरान मोदी ने भारत-नेपाल के गहरे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रिश्तों को रेखांकित किया। यह मुलाक़ात केवल कूटनीतिक औपचारिकता नहीं थी, बल्कि इसने पड़ोसी देशों के साथ “Neighbourhood First” नीति की पुनः पुष्टि की।
मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मुईज़्ज़ू से बातचीत में मोदी ने विकासात्मक सहयोग पर जोर दिया। हिंद महासागर क्षेत्र में मालदीव का महत्व केवल सामरिक दृष्टि से नहीं, बल्कि भारत की सुरक्षा और समुद्री कनेक्टिविटी की दृष्टि से भी काफी महत्व रखता है।
मिस्र के प्रधानमंत्री मुस्तफा मदबौली से हुई मुलाक़ात ने यह दिखाया कि भारत पश्चिम एशिया और अफ्रीका को भी अपनी विदेश नीति का अभिन्न हिस्सा मानता है। देखा जाये तो भारत-मिस्र सहयोग ऊर्जा, निवेश और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के नए अवसर खोल रहा है।
वहीं बेलारूस के राष्ट्रपति लुकाशेंको और ताजिकिस्तान के राष्ट्रपति रहमोन से हुई चर्चाओं में आर्थिक और सांस्कृतिक सहयोग पर बल दिया गया। इसी तरह कज़ाख़िस्तान के राष्ट्रपति से ऊर्जा, स्वास्थ्य और सुरक्षा सहयोग पर बातचीत भारत की मध्य एशिया नीति को मजबूती देती है।
सबसे महत्वपूर्ण भेंट म्यांमार के सुरक्षा एवं शांति आयोग के अध्यक्ष वरिष्ठ जनरल मिन आंग हलैंग से हुई। प्रधानमंत्री मोदी ने पड़ोसी देश के साथ रक्षा, सीमा प्रबंधन और व्यापारिक सहयोग पर चर्चा करते हुए “Act East Policy” के अंतर्गत कनेक्टिविटी परियोजनाओं को गति देने की आवश्यकता पर बल दिया। भारत का यह स्पष्ट संदेश रहा कि म्यांमार की स्थिरता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में प्रगति पूरे क्षेत्रीय शांति और सहयोग के लिए आवश्यक है।
मोदी की सक्रिय द्विपक्षीय मुलाक़ातें इस तथ्य को पुष्ट करती हैं कि भारत अब केवल एक क्षेत्रीय शक्ति नहीं, बल्कि वैश्विक संतुलनकारी शक्ति है। इसके अलावा, नेपाल, म्यांमार और मालदीव से मुलाक़ातें यह बताती हैं कि भारत अपने आसपास के क्षेत्र को स्थिर और समृद्ध देखना चाहता है। साथ ही मिस्र, बेलारूस और ताजिकिस्तान जैसे देशों से संवाद यह दर्शाता है कि भारत वैश्विक दक्षिण की साझा आकांक्षाओं का प्रतिनिधि बनकर उभर रहा है। वहीं चीन और रूस की उपस्थिति में भारत का संतुलित रुख अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी देशों को यह संकेत देता है कि भारत अपने हितों के आधार पर स्वतंत्र विदेश नीति अपनाएगा।
बहरहाल, तिआनजिन में प्रधानमंत्री मोदी की द्विपक्षीय सक्रियता केवल औपचारिक कूटनीति नहीं, बल्कि 21वीं सदी में भारत की उभरती भूमिका का स्पष्ट दर्पण है। पड़ोस से लेकर वैश्विक दक्षिण तक और पूर्वी एशिया से लेकर मध्य एशिया तक, भारत की विदेश नीति बहुस्तरीय और समग्र बन चुकी है। इस कूटनीतिक व्यस्तता से यह संदेश गया है कि भारत अब केवल एक सहभागी नहीं, बल्कि वैश्विक एजेंडा निर्माता के रूप में अपनी पहचान बना रहा है।
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