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Pahalgam Terror Attack terrorsists come from Pakistan crossed LAC border killed Indian tourists

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पति की बॉडी हाथ में लेकर बैठी महिला और सेना को देखकर डरते हुए लोग, पहलगाम आतंकी हमले के ये दो वीडियो उस तारीख में दर्ज हो गए हैं, जिन्हें न तो कोई याद रखना चाहेगा और न ही इसे कोई भूलना चाहेगा. ये दोनों ही वीडियो उस टूटे हुए भरोसे की कहानी है, जिसे जोड़ने में सरकारों को, लोगों को, कश्मीरियों को दशकों लग गए थे लेकिन एक झटके में सारी मेहनत पर पानी फिर गया.

भरोसा भी टूटा और हौसला भी. भरोसा टूटा हिंदुओं का मुस्लिमों के प्रति, क्योंकि आतंकियों ने धर्म पूछकर गोली मारी. भरोसा टूटा सेना का, क्योंकि आतंकी सैनिक वर्दी में आए थे तो असली सैनिक भी उन्हें आतंकी ही लगे और वो अपने बच्चों की सुरक्षा की गुहार लगाने लगे. हौसला टूटा उन लोगों का, जिन्होंने बड़े-बड़े बयानों पर भरोसा करके अपनी छुट्टियां, अपनी शादी की खुशियां, अपनों की संगत के लिए कश्मीर को चुना.

सरहद पार से चंद आतंकी आए, एक भरे-पूरे हरियाली मैदान को लाशों से पाट दिया, खून की होली खेली, उसके वीडियो बनाए और करीब 40 मिनट तक दहशतगर्दी करके, कत्ल-ए-आम करके फिर से सरहद पार चले गए. जिनके भरोसे वो हजारों लोग उस पहलगाम के मिनी स्विट्जरलैंड में मौजूद थे, इस वारदात के वक्त वही भरोसे के लोग न जाने कहां थे. अगर वो वहां मौजूद रहते, जहां उन्हें होना चाहिए था, तो आज आईबी अफसर मनीष रंजन, नेवी ऑफिसर विनय नरवाल और इनके साथ ही आतंकियों की गोली का शिकार बने 24 और लोग भी जिंदा होते. इन्हें अपने घोड़े पर घुमाने वाला सैयद हुसैन भी जिंदा होता.

ये लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं, इनकी मौत हो चुकी है. इनके अपने चीख-चीखकर रो रहे हैं और पूछ रहे हैं कि जिनके भरोसे ये लोग कश्मीर गए थे, वो कहां हैं. पूछना तो बनता भी है क्योंकि दावा तो यही था कि कश्मीर से दहशतगर्दी खत्म हो गई है. कश्मीर से जुड़े हर फैसले के पीछे सबसे बड़ा तर्क इस दहशतगर्दी का खात्मा ही था. वो बात चाहे नोटबंदी की हो या फिर धारा 370 को खत्म करने की, वो बात चाहे जम्मू-कश्मीर राज्य के पुनर्गठन की हो या फिर कई साल तक वहां चुनाव न होने देने की, वो बात चाहे सैन्य बलों की तैनाती की हो या फिर सैन्य अधिकारियों के फेरबदल की, सबके पीछे इकलौता तर्क ये कि आतंकियों की कमर टूट जाएगी. कुछ हद तक ये हुआ भी.

एक्शन हुआ तो असर भी हुआ. भरोसा जगाने की कोशिश हुई तो भरोसा भी हुआ. यही वजह थी कि जिस कश्मीर में पांच साल पहले पांच लाख लोग भी नहीं जा रहे थे, वहां पिछले साल ढाई करोड़ से ऊपर लोग गए. घूमने-फिरने, मौज-मस्ती करने, वीडियो बनाने, दुनिया को दिखाने. सबने देखा भी. तो भरोसा और भी बढ़ा और शायद यहीं गलती हो गई.

इतना बड़ा आतंकी हमला हो जाए और इंटेलिजेंस ब्यूरो को खबर तक न लगे तो सवाल उठेंगे ही उठेंगे. इतने बड़े टूरिस्ट प्लेस पर सुरक्षा के बंदोबस्त नहीं होंगे तो पूछना तो बनता ही है कि कहां थी पुलिस, कहां थे सेना के जवान और कहां थे वो सुरक्षा बल, जिनके भरोसे लोग कश्मीर पहुंचे थे, लेकिन अभी पूछें तो किससे पूछें. सेना से पूछेंगे तो लोग नाराज हो जाएंगे, सरकार से पूछेंगे तो लोग उलटे चढ़ बैठेंगे. चुप रह गए तो कभी जवाब मिल नहीं पाएगा और जवाब सबको पता है कि ये टोटल इंटेलिजेंस फेल्योर है. ये टोटल सिक्योरिटी लैप्स का मसला है. वरना सरहद पार से आतंकी आते हैं, अनंतनाग तक पहुंचते हैं. वहां से पहलगाम भी आ जाते हैं. उस ऊंची चढ़ाई पर चढ़ भी जाते हैं, लोगों को मार भी देते हैं और फिर वीडियो बनाकर वापस पाकिस्तान लौट जाते हैं. क्या ये मुमकिन है. सिनेमा होता तो हम हंसते कि ऐसा भी होता है क्या.

दुनिया की सबसे ताकतवर सेनाओं में शुमार भारतीय सेना, जिसकी इंटेलिजेंस की मिसाल दी जाती है, उससे ऐसी गलती नहीं होती, लेकिन अब हुआ है तो भरोसा तो करना ही पड़ेगा कि ये हुआ है. अभी जो हो रहा है, वो पहले हुआ होता तो शायद ये नौबत नहीं आती.

अब तो बैठकें हो रही हैं. मीटिंग्स हो रही हैं. आईबी की मीटिंग, सेना की मीटिंग, सुरक्षा बलों की मीटिंग, प्रधानमंत्री की मीटिंग, रक्षा मंत्री की मीटिंग, गृह मंत्री की मीटिंग, कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी की मीटिंग. सब हो रहा है. हो सकता है कि कोई फैसला भी हो ही जाए, लेकिन वक्त रहते ऐसे फैसले होते तो शायद ये दिन देखना नहीं पड़ता. वो मुनीर नियाजी कहते हैं न कि हमेशा देर कर देता हूं मैं… तो देर तो हो ही गई है, लेकिन देरी से अब भी कुछ दुरुस्त हो जाए तो बेहतर, क्योंकि अब भी हैं ऑल आईज ऑन पहलगाम.

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